क्या है मैकालेवादी शिक्षा का परोक्ष पक्ष

नि:श्रम विशिष्‍ट वर्गीय समाज एवं निरक्षर सामान्‍य श्रमिक समाज में देश का विभाजन-

जीवन निर्वाह के लिये उपयोगी उत्‍पादक देह श्रम से परहेज रखने की, देशी वेशभूषा एवं भाषा से परहेज करने की, सादा जीवन बिताने की बजाय शान शौकत से जीने की, जमीन पर बैठने की बजाय कुर्सियों पर बैठने की जो परोक्ष शिक्षा मैकाले महाशय ने भारत में आयोजित की उसका एक प्रच्‍छन्‍न लक्ष्‍य और भी था और वह यह था कि जो भी भारतीय ब्रिटिश पद्धति की शिक्षा में शिक्षित हो जाये वह ऐसा माने कि वह भारत के शासकीयवर्ग का विशिष्‍ट व्‍यक्ति है और भारतीय सामान्‍य जनता से अर्थात् भारत के शासित वर्ग से पृथक एवं ऊँचा है। मैने सुना है कि मैकाले बहादुर ने तो ऐसा कहा भी था कि चमड़ी के रंग के अलावा और सब बातों में हमारी शिक्षा में शिक्षित व्‍यक्ति भारतीय बने रहने की बजाय अंग्रेज बन जाना याहिए। कहना न होगा कि मैकाले साहब अपने इस लक्ष्‍य में भी सफल रहे। यहॉं भी मैं निरपवाद शतप्रतिशत सफलता की बात नहीं कर रहा हूँ फिर भी यह बात तो प्रत्‍यक्ष सत्‍य है कि भारत में जो भी व्‍यक्ति स्‍कूलों कॉलेजों में तथाकथित रूप से शिक्षित होता है, वह मजदूर, किसान, गोपालक, भेड़-बकरी पालक, नाई, धोबी, कुम्‍हार, लुहार, भड़भूजा, सुतार, भवन निर्माण कारीगर, ढोली, तम्‍बोली, मोची, सुनार, गॉंछी, हलवाई इत्‍यादि कामगार धंधों में पड़ने से बचने का भरसक प्रयत्‍न करेगा। बात यहॉं तक है कि कोई छोटी मोटी दुकान भी यदि उसका बाप चलाता होगा तो उसे उस दुकान पर बैठना पसंद नहीं होगा।

जो भी व्‍यक्ति स्‍कूलित कॉलेजित होगा उसकी भरसक कोशिश सरकारी नौकरी पाने की ही होगी, यानी हुकूमत, शासन, सत्‍ता से जुड़ने की ही उसकी मनोवृत्ति का शिकार हर स्‍कूलित कॉलेजित व्‍यक्ति होता है। इस मनोवृत्ति का जो परिणाम देश पर होता है तथा हुआ है वह विचारणीय तथा ध्‍यान देने योग्‍य है। परिणाम यह है कि देश का बँटवारा केवल पाकिस्‍तान-भारत नामक दो देशों में ही नहीं हुआ है, बल्कि अब हमारा शेष भारतीय समाज भी नि:श्रम विशिष्‍टवर्गीय समाज और निरक्षर सामान्‍य श्रमिक समाज में विभाजित हो गया है। परिणाम यह है कि लोकतंत्र के बावजूद, वोट के अधिकार के बावजूद,गरीबों, पिछड़ों, अनपढ़ों, दलितों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के उत्‍थान के सारे नारों के बावजूद विशिष्‍ट वर्ग के लोग लगातार लाभान्वित होते जा रहे हैं और सामान्‍य जन वर्गीय लोग लगातार एक संकट से दूसरे संकट में धकेले जा रहे हैं। पुराने सामन्‍ती राज्‍य के अत्‍याचारों का तथा वर्तमान जनतांत्रिक राज्‍य के लोग कल्‍याण की योजनाओं का ढोल तो खूब पीटा जा रहा है, पर वास्‍तविकता यह है कि जो आदिवासी एवं ग्रामीण जनता पूर्वयुगों में अपने वनप्रदेश में एवं ग्रामीण प्रदेश में आसानी से अपना गुजारा कर लेती थी, आज उन्‍हें प्रदेशों में अपना निर्वाह भी नहीं कर पा रही है।

देश की आबादी देश की सम्‍पदा बनने की बजाय देश पर भार स्‍वरूप बन रही है

एक और घातक दुष्‍प्रभाव मैकाले द्वारा प्रवर्तित शिक्षा की परोक्ष शिक्षा का यह हो रहा है कि आज के पढ़े लिखे लोग अथवा तथाकथित शिक्षित लोग स्‍वाधीन भारत की लोतांत्रिक सरकार में नित नवीन कार्यालय, विभाग, आयोग, सिमतियॉं, संस्‍थाऍं या संस्‍थान, केन्‍द्र, उपकेन्‍द्र इत्‍यादि खुलवाते जा रहे हैं। लगातार नये नये महकमे, नये नये संस्‍थान, नये नये शिक्षक प्रशिक्षण केन्‍द्र, नये नये राहत कार्यक्रम खुलते ही जा रहे हैं ताकि अधिकाधिक शिक्षित लोगों को ऐसा रोजगार दिया जा सके जिसमें कलम और कागज का ही काम हो और जिसमें किसी भी प्रकार का उत्‍पादक श्रम या उद्यम न हो। अनेकानेक इस प्रकार की प्रवृत्तियॉं खोजी जा रही हैं जिनमें ये स्‍कूलित कॉलेजित प्रशिक्षित विशेषज्ञ उत्‍पादक देह श्रम से मुक्‍त रहते हुए यह दिखा सकें कि भारत की नौका बस उन्‍हीं के बल पर तैर रही है। भारत सरकार तो अब अपने शिक्षा मंत्रालय तक को शिक्षा मंत्रालय नहीं कहती। अब शिक्षा शब्‍द तो हटा दिया गया है और मानव संसाधन विकास शब्‍दावली अपना ली गई है। अब मनुष्‍य मनुष्‍य नहीं माना जाता। अब मनुष्‍य का ऐसा अवमूल्‍यन हो गया है कि वह देश की खनिज सम्‍पदा, वन सम्‍पदा, जल सम्‍पदा की तरह सरकार के लिए एक संसाधन यानी एक रिसोर्स मात्र है। इस नये नामकरण के पीछे सरकार अव्‍वल तो मनुष्‍य को एक साधन/स्रोत मानती है और यह भी मानती है कि जब भारत का नागरिक स्‍कूलों कालेजों की तथाकथित शिक्षक प्रशिक्षण प्रक्रिया से निकल कर उत्‍पादक उद्यम के श्रम का परित्‍याग करके केवल बौद्धिक या बुद्धिजीवी बन कर कलमी तथा कागजी काम करने लग जाता है जब वह विकसित हो जाता है और जो नागरिक स्‍कूलित कॉलेजित होकर उत्‍पादक श्रम से मुक्ति नहीं पाता बल्कि उत्‍पादक उद्यम के दैहिक श्रम में ही लगा रहता है वह व्‍यक्ति एक ऐसा मानव संसाधन है जो अविकसित ही रहा गया है। जिस पर देश की सरकार को अंतर्राष्‍ट्रीय मंचों पर लज्जित होना पड़ता है। यद्यपि इस स्थिति का परिणाम यह है कि उपभोक्‍ता वर्ग की संख्‍या बढ़ती जाती है और उत्‍पादक वर्ग की मानव संख्‍या घटती जाती है और इससे समाज की आत्‍म व्‍यवस्‍थाऍं टूटती जा रही हैं। समाज ज्‍यादा से ज्‍यादा राजकीय व्‍यवस्‍थाओं पर आश्रित होता जा रहा है। इस परिस्थिति के कारण देश की सरकार का खर्चा इतना बढ़ गया है कि सरकार का दिवाला सा निकलता जा रहा है। सरकार न केवल कर्जदार बल्कि भिक्षुक की स्थिति में पहुँच गई है। भारत में लगभग एक अरब लोगों की आबादी है। शिक्षा अगर सही होती तो यही आबादी देश की सबसे बड़ी और अमूल्‍य सम्‍पदा बन जाती। यह आबादी देश के लिये एक शक्ति, सामर्थ्‍य या ऐसेट बन जाती। पर शिक्षा जो आज देश में चल रही है तथा फैलाई जा रही है वह देश की मानव सम्‍पदा को एक संकट, एक बोझ या लायेबिलिटी में बदलती जा रही है । मैकालेवादी शिक्षा ऐसी शिक्षा है जो मनुष्‍य के हाथों को तो शिथिल करती है लेकिन पेट की भूख को बढ़ाती है। इसलिये यह परिणाम अनिवार्य है कि देश के लिये व्‍यक्ति आर्थिक दृष्टि से राहत बनने की बजाय भार रूप बन जाय अथवा सौभाग्‍य की बजाय दुर्भाग्‍य बन जाय।

शिक्षित लेकिन बेरोजगार नयी पीढ़ी में कुण्‍ठा का पनपना-

यद्यपि हमारी सरकार अपने विकसित मानव संसाधनों यानी स्‍कूलित कॉलेजित प्रशिक्षितों को रोजगार देने के लिये अपना तंत्रजाल को सुरसा के मुख की तरह लगातार फैलाती जा रही है, लेकिन इवके बावजूद आज लाखों शिक्षित नवयुवक नौकरी पाने में विफल होकर अपनी किस्‍मत पर रो रहे हैं। वे अब न तो घर के रह गये हैं और घाट के बन पाये हैं। इस प्रकार देश के नवयुवकों में जो कुंठा व्‍याप्‍त हो रही है उसका देश की शांति और समृद्धि पर कितना विपरीत असर पड़ रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। यह दुर्दशा यद्यपि आज है तो सही, फिर भी न तो माता पिता ऐसी मॉंग करते हैं कि शिक्षा में उत्‍पादक दैहिक श्रम से घृणा का तत्‍व हटाया जाय और न सरकार ही इस दिशा में कुछ सोचती है।

शिक्षित व्‍यक्ति ईमानदार और विश्‍वसनीय भी हो यह आवश्‍यक नहीं-

मैकालेवादी शिक्षा में उत्‍पादक उद्यम के श्रम का बहिष्‍कार करने, स्‍वदेशी भाषा एवं स्‍वदेशी वेशभूषा को हीन मानने तथा अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी वेशभूषा का वर्चस्‍व स्‍थापित करने के पीछे जो परोक्ष लक्ष्‍य थे, उनका विवेचन तो हम ऊपर कर चुके हैं पर मैकालेवादी शिक्षा के परोक्ष पक्ष या परोक्ष पक्ष के भाव यहीं समाप्‍त नहीं होजाते। इन दुर्नीतियों में से एक दुर्नीति यह थी कि विद्यार्थियों को ज्ञानी, विज्ञानी और कुशल या निपुण तो जरूर बनाना है लेकिन विद्यार्थी ईमानदार या विश्‍वासनीय भी बनें या बेईमान या अविश्‍वसनीय न बनें इसकी चिन्‍ता स्‍कूलों को नहीं करनी है। बल्कि मैकालेवादी शिक्षा ने एक दृष्टि से तो यह मान लिया कि मैकालेवादी शिक्षा की प्राप्ति के बावजूद मनुष्‍य यानी शिक्षित व्‍यक्ति अविश्‍वसनीय तो बना रहेगा। अत: मैकालेवादी शिक्षा में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि शिक्षा प्रक्रिया के बीच बीच में तथा शिक्षा सत्र के अंत में छात्रों की परीक्षाएँ ली जावें और अन्‍त में जो विद्यार्थी परीक्षा में उत्‍तीर्ण हो उसे शिक्षित होने के प्रमाण के रूप में प्रमाण पत्र दिया जाए जिसके आधार पर समाज उसे शिक्षित माने। यानी छात्र शिक्षा पा लेने के बावजूद अपने प्रमाण पत्र दिखाने पर ही शिक्षित माना जायेगा एंसी व्‍यवस्‍था मैकालेवादी शिक्षा में की गई है। इस व्‍यवस्‍था के पीछे का डर यह था कि क्‍या पता कोई अशिक्षित व्‍यक्ति भी शिक्षित होने का दावा करके नौकरी माँगने आ जावे या क्‍या पता कोई व्‍यक्ति ऐसा भी निकल आये जो मैकालेवादी स्‍कूल कॉलेज में बढ़े बिना ही किसी भी और उपाय से सुयोग्‍य बन जाय और नौकरी में प्रवेश पाने का प्रयत्‍न करे। तो यह जरूरी बनाया गया कि शिक्षित होना ही पर्याप्‍त नहीं होगा बल्कि सरकार की शिक्षा व्‍यवस्‍था के अधिकारी विभाग से शिक्षित होने का प्रमाण पत्र लगातार साथ रखना होगा। शिक्षित व्‍यक्ति यदि अपने मुख से कहे कि वो शिक्षित है तो उसका विश्‍वास नहीं किया जाय। ऐसा अघोषित और मौन संदेश समाज को दिया गया। शिक्षित व्‍यक्ति तभी शिक्षित माना जाये जबकि उसके पास अधिकृत कार्यालय से प्राप्‍त सर्टिफिकेट या प्रमाण पत्र हो। मैं जब यह कहता हूँ या लिखता हूँ कि मैं स्‍वर्णकार जाति का व्‍यक्ति हूँ तो समाज मेरा विश्‍वास करता है। लेकिन जब मैं यह कहूँ कि मैं बी ए, बी एड् हूँ तो समाज मुझ पर विश्‍वास नहीं करता बल्कि मुझसे प्रमाण पत्र माँगता है। यानी मेरी शिक्षा मुझे अविश्‍वासनीय घोषित कर देती है। वह मुझे अविश्‍वासनीय मानती है इसका दूसरा प्रमाण यह है कि जब मुझे परीक्षा कक्ष में प्रश्‍नपत्र दिया जाता है और जब मैं उस प्रश्‍न पत्र का उत्‍तर लिख रहा होता हूँ तो कहीं मैं नकल तो नहीं कर रहा हूँ इस आशंका से मेरे ऊपर निगरानी रखी जाती है। इस व्‍रूवस्‍था का मौन प्रभाव मुझ पर यह पड़ता है कि यदि निगरानी न हो और पकड़े जाने का भय न हो तो चोरी करने में कोई हर्ज, हानि या पाप नहीं है। मैं यह मौन प्रभाव या यह परोक्ष शिक्षा ग्रहण करता हूँ कि मैं चाहे एम ए, पी एचडी भी क्‍यों न हो जाऊँ पर मेरे शिक्षक या मेरा विश्‍वविद्यालय मुझसे ईमानदार रहने की अपेक्षा नहीं रखता। यह शिक्षा मनती है कि शिक्षित व्‍यक्ति भी बेईमान हो सकता है अथवा बेईमान होने के हक से शिक्षित व्‍यक्ति वंचित नहीं किया गया है। पर बात केवल छात्रों तक ही सीमित नहीं रहती। शिक्षक तथा शिक्षण संस्‍थाऍं स्‍वयं भी अविश्‍वसनीय मानी जाती हैं। इसीलिये परीक्षार्थियों की केंद्रीकृत व्‍यवस्‍था शिक्षा के दूर बैठे बोर्ड द्वारा की जाती है। शक यह काम करता है कि यदि शिक्षकों को या स्‍कूलों को ही या कॉलेजों को ही अपने अपने छात्रों की परीक्षा व्‍यवस्‍था करने दिया जायेगा एवं पास का प्रमाण पत्र देने दिया जायेगा तो ये शिक्षक और ये शिक्षण संस्‍थाऍं बेईमानी करते हुए अपनी संस्‍था के अयोग्‍य विद्यार्थियों को भी उत्‍तीर्ण या पास होने का प्रमाण पत्र दे देंगी। यानी शिक्षा की सारी इमारत अविश्‍वास की नींव पर खड़ी है। शिक्षा द्वारा मनुष्‍य ईमानदार बनाया जा सकता है ऐसा विश्‍वास मैकाले की शिक्षा में ही नहीं।

प्रजा में ईमान तथा विश्‍वसनीयता के फैलाव से तो सरकारी तंत्र का फैलाव रोकना पड़ेगा-

पर यदि मैकाले की नीयत को समझा जाये तो हमें यह स्‍पष्‍ट हो जायेगा कि विश्‍वसनीय लोगों के समाज में सरकारी तंत्र को ज्‍यादा रोजगार नहीं मिलता। यदि समाज में ऐसी शिक्षा फैले कि उससे मनुष्‍य ईमानदार या विश्‍वसनीय बन जाये तो चोरियॉं, डकैती, झगड़े, बखेड़े, मुकदमे तो घट जायेंगे बल्कि मिट ही जायेंगे तो फिर सरकार में नौकरशाही की इदतनी बड़ी फौज है, उसे रोजगार कैसे मिलेगा। यदि शिक्षा द्वारा समाज में विश्‍वसनीयता सचमुच फैल ही जाय तो इंस्‍पैक्‍टरों की जरूरत कैसे रहेगी। सामान्‍य अदालतों पर उच्‍च न्‍यायालयों की और उच्‍च न्‍यायालय पर सुप्रीम न्‍यायालय की जरूरत कैसे बचेगी। यदि एक विदेशी शासन सरकारी खर्चे से ऐसी शिक्षा चलाये जिससे जनता में नैतिक अनुशासन की वृद्धि हो जाय तो ऐसी जनता विदेशी शासन को सहेगी कैसे? तो मैकाले साहब ने ऐसी शिक्षा की व्‍यवस्‍था की जिसमें नैतिक अनुशासन को पनपाना अर्थात् ईमानदारी या विश्‍वसनीयता को पनपाना सरकार के लिये घातक होता। मैकाले तो बहुत बुद्धिमान और चतुर थे। वे शिक्षा के प्रत्‍यक्ष प्रभाव एवं परोक्ष प्रभाव दोनों को समझते थे। अत: अन्‍होंने शिक्षा की व्‍यवस्‍था ऐसी की कि जिसमें भारतीय जनता में नैतिकता की पुष्टि न हो। कहना न होगा कि अंग्रेजों को अपने द्वारा प्रवर्तित शिक्षा के इस प्रच्‍छन्‍न एवं परोक्ष दुर्लक्ष्‍य में यद्यपि पूर्ण सफलता तो नहीं मिली, पर किसी हद तक सफल जरूर हुए। शुक्र है खुदा का कि इन्‍सान एक ऐसा प्राणी है कि शतप्रतिशत इन्‍सानों को क्रूर या भ्रष्‍ट बना देना असंभव है। कलियुग एवं कुशिक्षा कितनी भी फैले लेकिन कई इन्‍सान ऐसे छिपे रुस्‍तम जरूर निकल आयेंगे जो ईमान पर ही डटे रहेंगे। फिर भी जब शिक्षा द्वारा ही अविश्‍वासनीयता को फैलाया जाये तो उसका दुष्‍प्रभाव काफी हद तक समाज पर जरूर पड़ेगा। समाज पर मैकालेवादी शिक्षा का यह असर ब्रिटिश शासन में तो पड़ा ही था पर आज भी हम इससे ग्रस्‍त हैं क्‍योंकि स्‍वाधीन भारत में भी शिक्षा तो मैकाले की ही चल रही है। इसलिये समाज में अविश्‍वसनीय लोगों की बहुतायत है। सरकारी तंत्र को ज्‍यादा से ज्‍यादा फैलाया जा सकता है जबकि समाज तथा जनता में अविश्‍वसनीय तथा बेईमान लोग ज्‍यादा हों। सरकार अपने तंत्र को अधिकाधिक रोजगार देना तथा फैलाना चाहेगी, वह सरकार शिक्षा की व्‍यवस्‍था ऐसीही बनायेगी जिससे लोग अविश्‍वसनीयऔर बेईमान बनें। बुद्धिमान राजनीतिज्ञ मैकाले ने अपनी शिक्षा योजना इसी बात को ध्‍यान में रखकर बनायी थी। विडम्‍बना यह जरूर है कि यही मैकालेवादी शिक्षा योजना आज स्‍वाधीन भारत में भी पिछली आधी सदी से न केवल चलायी जा रही है बल्कि इसे एक अच्‍छाई तथा भलाई मानकर फैलाने की कोशिश भी की जा रही है। फलस्‍वरूप स्थिति आज यह है कि ब्रिटिश शासन के युग में तो देश में कम ही लोग बेईमानी तथा अविश्‍वसनीयता को अपनाते थे पर आज तो अनैतिकताका आचरण देश में ज्‍यादा फैल गया है। इस स्थिति का कारण यही है कि हमने मैकालेवादी शिक्षा के प्रच्‍छन्‍न एवं परोक्ष रूप को नहीं देखा और नहीं समझा। मैकालेवादी शिक्षा परोक्ष में वही नहीं है जो प्रत्‍यक्ष में दिखाई देती है। इस बात को महात्‍मा गॉंधी ने समझा था और अपनी बुनियादी शिक्षा योजना में इस शिक्षा का एक ऐसा विकल्‍प सुझज्ञया था जिसका प्रत्‍यक्ष रूप तो कुछ कठोर लगता था परन्‍तु जिसका परोक्ष प्रभाव देश के लिये बहुत कल्‍याणकारी सिद्ध होता। पर आजादी की प्राप्ति के पहले ही मैकालेवादी शिक्षा, जैसी भी वह थी, हमारे देश की नौकरशाही तथा हमारे देश के एलीट वर्ग की निहित स्‍वार्थ की वस्‍तु बन चुकी थी। हमारे निर्वाचित राजनेता एक एलीट वर्ग की तुलना में कमजोर तथा भोले थे। अत: गॉंधी द्वारा प्रतिपादित शिक्षा दफना दी गई।

यदि नया जन्‍म भारत में लेकर स्‍वयं मैकाले आज भारत के शिक्षा मंत्री बन जायें-

मैं श्री मैकाले की निन्‍दा नहीं करूँगा। वे जिस राज्‍य के कर्मचारी थे उसी राज्‍य के हित की दृष्टि से उन्‍होंने शिक्षा योजना बनाई थी। मैं ऐसा मानता हूँ कि यदि अब भी मैकाले का पुनर्जन्‍म भारत में हो जाये और वे भारत में चुनाव जीत जायें और उन्‍हें भारत का शिक्षा मंत्री बनाया जाय तो आज तो वे भी शायद साफ साफ कह देंगे कि पूर्व जन्‍म में तो उन्‍होंने ब्रिटिश राज के हित में शिक्षा की रचना इस बात को ध्‍यान में रख कर की थी कि शिक्षा केवल एलीट वर्गीय नौकरशाही तक ही सीमित रहे और भारत की आम जनता में फैल नहीं पायेद्य। यदि समस्‍त जनता शिक्षित हो जाय तो विदेशी गुलामी के लिये हानिकारक हो जायेगी। अत: जिन उपायों से शिक्षा आम जनता में आसानी से फैल सकने की संभावना बनती थी, उन उपायों को मैकाले ने अपनी शिक्षा प्रणाली से बहिष्‍कृत कर दिया। शिक्षा का आम जनता में फैलना तभी संभव होता है जब शिक्षा का माध्‍यम जनता की अपनी ही मातृ भाषा हो। य‍दि शिक्षा में वर्चस्‍व जनवाणी के बजाय किसी विदेशी भाषा का है तो शिक्षा का प्रसार गुण या उनकी प्रसरणीयता समाप्‍त हो जाती है। इसी तरह शिक्षा में जब उत्‍पादक उद्यम का परिश्रम एवं स्‍वावलम्‍बी जीवन की साधना होती है, उस दशा में शिक्षार्थियों की शिक्षाहार की पाचन शक्ति बढ़ी हुई रहती है और शिक्षा में यदि उत्‍पादक उद्यम एवं स्‍वावलम्‍बन की साधना नहीं रहती है तो शिक्षा की भूख और शिक्षा को पचाने की शक्ति बिल्‍कुल घट जाती है। शिक्षाविद् मैकाले साहब आज यदि भारत सरकार में शिक्षा मंत्री होते तो वे स्‍वाधीन भारत के लिये भी वफादार वेतन भोगी की तरह हमें यह सब बातें समझा देते कि शिक्षा में उद्यम को स्‍थान देने से शिक्षा की भूख और शिक्षा की पाचन शक्ति तो बढ़ती है और शिक्षा यदि विद्यार्थी की स्‍थानीय मातृभाषा में दी जायतो उसकी प्रसरणीयता का गुण भी बढ़ जाता है। तो यदि मैकाले साहब को स्‍वाधीन भारत का शिक्षा मंत्री बना दिया जाता तो वे गॉंधीजी की बनायी हुई बुनियादी शिक्षा को स्‍वीकार करवा ही देते। पर मैकालेवादी शिक्षा से ही उत्‍पन्‍न जो नौकरशह आज देश पर हावी हैं, अव्‍वल तो वही इस देश में बुनियादी शिक्षा को नहीं चलने देगा। पर आज खतरा केवल एलीट वर्ग से ही नहीं है। आज तो एक स्थिति और भी पैदा हो गई है जो कि देश में शिक्षा सुधार की किसी भी क्रांति को रोकेगी। यह स्थिति पैदा हुई है छात्रों के माता पिता के जीवन मूल्‍यों में तथा उनकी मानसिकता में।

प्रचलित स्‍कूली शिक्षा प्रत्‍यक्षत: सारी प्रजा में भले ही नहीं फैल पायी हो, उसके परोक्ष मूल्‍य तथा संस्‍कर तो देश में फैले ही हैं-

बेशक यह तो सच है कि आज भारत में शत प्रतिशत लोग साक्षर नहीं हैं और यह भी सच हे कि 6 से 14 वर्ष के बीच की आयु के शतप्रतिशत बच्‍चे स्‍कूलों में नहीं जाते और इसलिये हम यह मानेंगे कि प्रत्‍यक्ष दृष्टि से अभी तक पूरे देश में शिक्षा फैली नहीं है। पर मैं जहॉं तक देख पाया हूँ मुझे लगता है कि प्रत्‍यक्ष दृष्टि से यह मैकालेवादी शिक्षा देश में भले ही सार्वजनीन नहीं हो पायी हो, पर इस शिक्षा में जो अंतर्निहित परोक्ष शिक्षा है या जिन जीवन मूल्‍यों की स्‍थापना मैकाले महाशय इस शिक्षा की मार्फत भारत में करना चाहते थे, वे जीवन मूल्‍य तो उन लोगों की मानसिकता में भी गहरे पैठ गये हैं जो कि अनपढ़ हैं और जिन्‍होंने स्‍कूलों में बिल्‍कुल भी शिक्षा नहीं पायी है। गीता में कहा गया है कि आम जनता तो श्रेष्‍ठों का अनुवर्तन करती है। जो जीवन मूल्‍य हमारे देश के एलीट वर्ग ने इस मैकालेवादी शिक्षा के प्रभाव से अपना लिये है, उन्‍हीं जीवन मूल्‍यों को अनपढ़ अस्‍कूलित जनसाधारण भी अपने जीवन में अपनाने का भरसक प्रयत्‍न कर रहे हैं। मैंने ऐसे श्रमिक युवक देखे हैं जो अत्‍यंत गरीब हैं लेकिन जो धोती के बजाय पैंट पहनने का अधिक खर्चा उठायेंगे और जो ग्रामीण या देशी जूतों के बजाय बहुत महँगे तथा टखने तक पहुँचने वाले कैन्‍वास के जूते पहनेंगे। इसके अलावा जिन माता पिताओं पास आज के युग में बहुत अच्‍छी तरह गुजारा कराने वाला वंश परम्‍परागत घंधा है, उन माता पिता की भी आंतरिक लालसा यह है कि उनकी संतान पैतृक व्‍यवसाय छोड़कर नौकरी करे। ये माता पिता भी इंगलिश मीडियम कान्‍वेंट स्‍कूल में अपने बच्‍चों को भरती कराने की होड़ में रहते हैं। होड़, प्रतियोगिता, ईर्ष्‍या, प्रतिद्वन्द्विता को एक नया जीवनमूल्‍य बनाकर इस मैकालेवादी शिक्षा ने सारे देश की शिक्षित अशिक्षित पूरी जनता में स्‍थापित कर दिया है। उसका लड़का डॉक्‍टर है, इंजिनीयर हे, एडवोकेट है, प्रोफेसर है, प्रिसिपल है, कलैक्‍टर है, मैनेजर है, पर मेरा लड़का तो केवल कारीगर है, दुकानदार है तो इससे बढ़कर मेरे लिये शर्म की बात क्‍या हो सकती है। इस प्रतियोगिता एवं द्वेश के रोग ने सारे देश को ग्रस्‍त कर दिया है। प्रत्‍यक्षत: यह शिक्षा भले ही सार्वजनीन नहीं हुई है जिसका रोना सरकार सदैव रोती रहती है। पर परोक्षत: मैकालेवादी शिक्षा में निहित निम्‍नस्‍तीरय तथा पतनकारी जीवन मूल्‍य तो सारे देश में व्‍याप्‍त हो गये हैं।

देश की वर्तमान स्थिति इस आशंका की एक चेतावनी मानी जानी चाहिये कि हमारी सरकार को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिये कि अकेली सरकार ही देश के भविष्‍य एवं उसके कुशल क्षेम को बचा लेगी। यदि शिक्षा प्रणाली को गलत ही रहने दिया गया तो अकेली सरकारी सत्‍ता से देश का भविष्‍य न तो सुधर सकेगा और न इसकी स्‍वाधीनता सुरक्षित रह सकेगी। य‍ह देश इस बात को जितनी जल्‍दी समझे अपना ही भला है।