शिक्षकों की तेजस्विता का त्यक्तिमार्ग

नया शिक्षक/टीचर टुडे जुलाई-सितम्‍बर 1977 में प्रकाशित श्री दयाल चंद्र सोनी का लेख

 

स्‍वैच्छिक शिक्षण संस्‍थाओं के प्रबन्‍ध में उन संस्‍थाओं के कार्यकर्ताओं का समुचित प्रतिनिधित्‍व होना चाहिए ऐसी मांग प्राय: उठा करती है और यह मांग निर्विवाद रूप से उचित है। परन्‍तु इस मांग के मान लिये जाने से शिक्षकों की परिस्थिति में कोई विशेष अन्‍तर आ जायगा, ऐसा विश्‍वास नहीं किया जाना चाहिए।

शिक्षकों का जैसा प्रतिनिधित्‍व मांगा जाता है उसके निम्‍नलिखित तीन उपाय हो सकते हैं-

1. शिक्षक लोग अपने सदस्‍यों में से अपना प्रतिनिधि चुनें और संस्‍था की कार्यकारिणी समिति उस प्रतिनिधि को अपना सदस्‍य बना ले।

2. संस्‍था की कार्यकारिणी समिति स्‍वयं ही किसी शिक्षक को शिक्षकों का प्रतिनिधि नियुक्‍त करे और उसे कार्यकारिणी समिति में ले ले।

3. शिक्षक लोग किसी ऐसे व्‍यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनें जो संस्‍था में काम नहीं करता हो, परन्‍तु जो कार्यकारिणी में उनके हितों की रक्षा कर सके।

इन तीनों उपायों में कुछ न कुछ गंभीर दोष रहेगा। पहले उपाय में दोष यह है कि शिक्षकों का चुना हुआ प्रतिनिधि बन कर जो व्‍यक्ति कार्यकारिणी में बैठेगा वह यदि कार्यकारिणी में निष्क्रिय रहेगा तो उसका प्रतिनिधित्‍व व्‍यर्थ होगा और यदि शिक्षकों के पक्ष में पर्याप्‍त रूप से सक्रिय होगा तो अपनी निज की सेवा में संस्‍था का कोपभाजन बनेगा। साथ ही एक संभावना यह भी है कि प्रतिनिधि का चुनाव करते समय काय्रकर्ता सभा में ही अवांछनीय गुटबन्‍दी हो जाय और कार्यकारिणी सभा स्‍वयं इसमें रुचि ले कि अमुक व्‍यक्ति को प्रतिनिधि चुना जाय और अमुक व्‍यक्ति को प्रतिनिधि न चुना जाय। कार्यकारिणी ऐसा प्रयत्‍न कर सकती है कि शिक्षकों का प्रतिनिधि चुने जाने में शिक्षकों में फूट पड़ जाये तथा दलबन्‍दी हो जाय; ऐसी दशा में शिक्षकों को प्रतिनिधित्‍व तो मिल जायगा पर उसके फलस्‍वरूप आपस में फूट पड़ जायेगी और ग़लत आदमी प्रतिनिधित्‍व के लिए चुन लिया जायगा। ऐसा प्रतिनिधित्‍व शिक्षकों के लिए एक घाटे का सौदा बन जायेगा।

अब यदि दूसरे उपाय के अनुसार संस्‍था स्‍वयं किसी शिक्षक को शिक्षकों के प्रतिनिधि के रूप में नामज़द करके अपनी कार्यकारिणी में स्‍थान देती है तो यह आवश्‍यक नहीं है कि वह प्रतिनिधि कार्यकारिणी में बैठ कर संस्‍था को खुश रखने का मोह त्‍याग कर शिक्षकों के हितों के लिए आवाज़ खड़ी करे और संस्‍था के अधिकारियों का कोपभाजन बने। ऐसा प्रतिनिधि तो संस्‍था के अधिकारियों का कृपापात्र ही बनने का प्रयत्‍न करेगा।

और यदि तीसरा विकल्‍प स्‍वीकार करके शिक्षक लोग किसी बाहर के व्‍यक्ति को अपना प्रतिनिधि बना कर कार्यकारिणी में भेजना चाहें तो फिर बाहर के लोगों में ऐसी होड़ हो सकती है कि वे शिक्षकों के प्रतिनिधि बन कर संस्‍था की कार्यकारिणी में घुसें तथा उसमें तोड़फोड़ करें।

सारांश यह कि ख़ानगी शिक्षण संस्‍थाओं के प्रबन्‍ध में उन संस्‍थाओं के प्रतिनिधित्‍व की मांग सर्वथा उचित होते हुए भी उसका व्‍यवहार पक्ष कुछ इस तरह का है जिससे सम्‍यक् प्रतिनिधित्‍व होना मुश्किल हो जाता है और सम्‍बन्‍धों के विगड़ जाने और फूट पड़ने का खतरा अधिक रहता है।

संस्‍था के कार्यकर्ताओं को समझना यह है कि संस्‍था के प्रबन्‍ध में अपना प्रतिनिधि भेजना स्‍वयं में एक साध्‍य है या ऐसा करना किसी साध्‍य का साधन है! इस प्रश्‍न पर यदि विचार किया जाय तो हमें यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्‍व संस्‍था के प्रबन्‍ध में होना अपने आप में कोई सिद्धि या साध्‍य नहीं है। वास्‍तव में तो साध्‍य यह है कि संस्‍था की प्रबन्‍धकारिणी समिति कार्यकर्ताओं का शोषण न करे, कार्यकर्ताओं के बीच भेदभाव तथा पक्षपात बरत कर मनमानी न करे, कार्यकर्ताओं के बीच फूट न डाले, मनमाने तौर पर कार्यकर्ताओं की आजीविका पर हमला न करे, कार्यकर्ताओं को विकास तथा उन्‍नति का समुचित अवसर दे और कार्यकर्ताओं के बीच परस्‍परिक प्रीति में वृद्धि करे। अत: मुख्‍य विचारणीय विषय यह नहीं है कि संस्‍था के प्रबन्‍ध में कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्‍व कैसे हो, बल्कि यह है कि कार्यकर्ता किस प्रकार संगठित, सशक्‍त, सुरक्षित एवं प्रबुद्ध बन सकते हैं ताकि उन पर किसी प्रकार से अत्‍याचार करना, किसी भी प्रकार से उनका दमन या शोषण करना संस्‍था की प्रबन्‍धकारिणी समिति के लिए असम्‍भव बन जाय और न केवल कार्यकर्ताओं के आपसी संबंध बल्कि कार्यकर्ताओं तथा कार्यकारिणी समिति के बीच भी सम्‍बन्‍ध मधुर तथा सामंजस्‍यपूर्ण हों।

आज के कार्यकर्ताओं में आत्‍मकल्‍याण के लिए अधिकार प्राप्ति की भावना ज़रूर है, पर वे एक सामान्‍य गुर को भूल जाते हैं कि जब तक शिक्षकों के बीच पारस्‍परिक संबंध सद्भावनापूर्ण एवं ईर्षद्वेशमत्‍सर रहित न होंगे, जब तक शिक्षक अपने में ही सुसंगठित एवं एक दूसरे के प्रति कर्तव्‍यपरायण न होगा, तब तक संस्‍था की प्रबन्‍धकारिणी में उनका प्रतिनिधित्‍व हो जाना कोई चमत्‍कार नहीं कर सकता। शिक्षकों के हितों की हानि के मूल में संस्‍था की कार्यकारिणी समिति उनकी नहीं होती है जितनी कि शिक्षकों की पारस्‍परिक फूट, ईर्ष्‍या तथा प्रतिस्‍पर्द्धा होती है। कार्यकारिणी समिति में कुछ लोग ऐसे हुआ करते हैं जो शिक्षकों के पारस्‍परिक प्रतिस्‍पर्द्धा के चक्‍कर में आ जाते हैं और पक्षपात तथा अन्‍याय कर बैठते हैं। इस तरह का अन्‍याय या पक्षपात करने से कार्यकारिणी को या संस्‍था को लाभ के बजाय हानि ही होती है, परन्‍तु कार्यकारिणी समिति में भी साधारण इंसान ही तो होते हैं जो इन बातों को समझ नहीं पाते और कुछ लोगों के बहकावे में आ जाया करते हैं। अधिकांश संस्‍थाओं में कार्यकारिणी समितियाँ एक शोभा की बात होती हैं। हमारे समाज में ऐसे सज्‍जनों का अभाव है जो कार्यकारिणी समिति के सदस्‍य बन जाने पर पूरी कर्त्तव्‍यपरायणता तथा जागरूकता से सदस्‍यता का सक्रिय पालन करें। अधिकांश सदस्‍य संस्‍था के प्रति उदासीन होते हैं और सचिव अथवा अध्‍यक्ष पर सारा काम छोड़ कर निश्चिंत रहा करते हैं, अथवा कुछ सदस्‍य ऐसे होते हैं जो संस्‍था की कार्यकारिणी का सदस्‍य होना अपने लिए एक गौरव तथा तफरीह की बात मानते हैं और संस्‍था में क्‍या होता है, क्‍या नहीं, इससे उनको कोई भी दिलचस्‍पी नहीं होती। ऐसी दशा में कार्यकारिणी समिति में अपना इक्‍का-दुक्‍का प्रतिनिधि भेज देने में शिक्षकों की समस्‍या का कोई ठोस समाधान हो जाने की आशा नहीं है।

पर मैं यहॉं इस बात का समर्थन नहीं कर रहा हूँ कि शिक्षण संस्‍था के प्रबन्‍ध में शिक्षकों का प्रतिनिधित्‍व न हो। मेरा कहना केवल यह है कि जिस तरह का तथा जिस तरह से प्रतिनिधित्‍व मांगा जाता है ओर दिया जाता है उससे शिक्षकों के हितों की रक्षा में कोई विशेष अन्‍तर पड़ने वाला नहीं है। प्रतिनिधि बनाये जाने वाले महानुभाव चाहे राजनीति में और चाहे शिक्षण संस्‍थाओं में कितना प्रतिनिधित्‍व अपने निज हितों का किया करते हैं और कितना प्रतिनिधित्‍व उनको प्रतिनिधि बना कर भेजने वालों का करते हैं यह तो शोध का विषय है।

मूल प्रश्‍न प्रतिनिधित्‍व का नहीं है, बल्कि, शिक्षक जाति में एक नयी मर्यादा, नया जीवट तथा नयी तेजस्विता पैदा करने की है। जब तक शिक्षकों में पारस्‍परिक वफ़ादारी, पारस्‍परिक कर्त्तव्‍यपरायणता, पारस्‍परिक सहयोग, पारस्‍परिक सद्भावना पैदा न होगी और दूसरी तरफ़, जब तक शिक्षकों में संस्‍था के कार्य के प्रति सच्‍ची निष्‍ठा एवं समर्पण की भावना भी साथ ही साथ पैदा न होगी, तब तक शिक्षकों की दशा के सुधरने में कोई उल्‍लेखनीय प्रगति नहीं होगी। यदि शिक्षक जाति यह चाहती है कि हम एक दूसरे की प्रतिस्‍पर्द्धा में एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र तो करते रहें और संस्‍था में हम जिस कार्य पर नियुक्‍त हैं उसके प्रति सम्‍यक् निष्‍ठा तथा समर्पण की भावना तो न रखें लेकिन शिक्षक जाति का उद्धार अवश्‍य हो जाय, तो यह असंभव है।

जिस प्रकार प्रत्‍येक शिक्षक अपनी संस्‍था के अधिकारियों के प्रति अनुशासन तथा मर्यादा का पालन करने के लिए एक प्रतिबद्धता को स्‍वीकार करके ही नौकरी कर पाता है, उसी प्रकार प्रत्‍येक शिक्षक को अपने साथी शिक्षकों तथा कार्यकर्ताओं के प्रति भी एक निश्चित अनुशासन तथा मर्यादा को साफ साफ समझना चाहिए और उस मर्यादा एवं अनुशासन का पालन करना चाहिए। ‘अनुशासन’ की संकलपना हमारे साथियों में बहुत ही ग़लत रूप से चल रही है। लोग ऐसा मानते हैं कि अनुशासन केवल ऐसी मर्यादा का नाम है जो छोटों को अपने बड़ों (या अपने अधिकारियों) के प्रति निभाना चाहिए। अनुशासन की यह संकल्‍पना अत्‍यन्‍त दोषपूर्ण तथा अधूरी है। अनुशासन के आयाम एक नहीं, बल्कि तीन हैं। अनुशासन का पहला आयाम यह है कि जो बड़े माने जाते हैं वे अपने से छोटों के प्रति अनुशासन का ठीक तरह पालन करें, अनुशासन का दूसरा आयाम यह है कि लोग अपने बराबरी के साथियों के प्रति अपनी मर्यादा का पालन करें, और अनुशासन का तीसरा आयाम यह है कि छोटे लोग भी बड़ों के प्रति अपनी मर्यादाओं का पालन करें। पर अनुशासन की इन तीन मर्यादाओं में जो मर्यादा आज सबसे ज्‍यादा उपेक्षित है वह है अपने बराबरी के साथियों के प्रति अपनी मर्यादा का पालन करना। जहॉं देखो वहीं, लोग अपने बराबरी के साथी के प्रति ग़ैर वफ़ादार हैं अनुशासनहीन हैं, अमर्यादित हैं। जब तक हमारी यह दशा चलती रहेगी, हम लोग सुखी नहीं होंगे, हमारा सम्‍मान न होगा, हमारे हित सुरक्षित न होंगे, हमारी तेजस्विता नहीं बढ़ेगी। शिक्षकों के कल्‍याण या उद्धार में मूल बाधा यह नहीं है कि संस्‍था के प्रबंध में उनका प्रतिनिधित्‍व नहीं है, मूल बाधा तो यह है कि शिक्षक स्‍वयं ही अपने को एक ”नौकर” से ज्‍यादा नहीं समझता और अपनी ”नौकरी” में व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ सर्वोपरि रखते हुए अपने साथी शिक्षकों की लाश पर पांव रख कर भी आगे बढ़ने को तैयार हो जाता है। संस्‍था की प्रबन्‍ध समितियां ऐसे शिक्षकों के चंगुल में फंस कर ही शिक्षकों पर अन्‍याय और अत्‍याचार कर पाती हैं।

मैं तो शिक्षकों से एक सीधा प्रश्‍न पूछता हूँ कि आप लोग संस्‍था की प्रबन्‍धकारिणी समिति में अपने थोड़े से प्रतिनिधित्‍व ही की मांग क्‍यों करते हैं? क्‍यों नहीं आप लोग ऐसी मांग करते हैं कि पूरी प्रबन्‍धकारिणी समिति के सभी सदस्‍य वेतन भोगी कार्यकर्ता शिक्षक लोग ही बन जायें? जो लोग संस्‍था में वेतन लेकर स्‍वयं सक्रिय रूप से शिक्षण का या दूसरा काम नहीं करते हैं, वे क्‍यों संस्‍था की प्रबन्‍धकारिणी में अध्‍यक्ष अथवा सचिव आदि बन कर संस्‍था पर शासन करते हैं? क्‍यों शिक्षक लोग ऐसी प्रबन्‍धकारिणी समितियों की नौकरी स्‍वीकार करते हैं? क्‍यों नहीं शिक्षक लोग मिल जुल कर अपनी एक ”शिक्षक सहकारी समिति” बना कर संस्‍था स्‍थापित करते हैं ताकि वे स्‍वयं ही अपनी कार्यकारिणी बनाकर अपनी शिक्षण संस्‍था चला सकें।

यदि उपर्युक्‍त प्रश्‍न पर विचार किया जाय तो हमारी दुर्बलताऍं सामने आ जाएंगी। नौकरी में बड़ा आराम है और बड़ी सुविधा है। नौकरी में तनख्‍वाह की सुरक्षा है, नौकरी में सुविधा है कि काम के बिगड़ने का दोष दूसरे पर डाला जा सके और नौकरी में इस बात की गुंजायश है कि काम कम किया जाय, गप्‍पें ज्‍यादा हांकी जायँ; और अपने बराबर के साथी के विरुद्ध षड्यन्‍त्र ज्‍यादा किया जाय। ये सब सुविधाऍं उस समय हमें उपलब्‍ध नहीं होंगी जब हम संस्‍था की कार्यकारिणी समिति को पूर्णतया उखाड़ फेंके और स्‍वयं ही एक ”शिक्षक सहकारी समिति” के रूप में गठित होकर अपनी संस्‍था स्‍वयं ही स्‍थापित करें और स्‍वयं ही चलावें। शिक्षकों को किसी ने मना नहीं किया है कि वे स्‍वयं संगठित होकर अपनी निजी शिक्षण संस्‍था सहकारी आधार पर न चलावें। पर शिक्षक लोग ऐसा करते नहीं हैं क्‍योंकि उनमें वे सभी दुर्बलताएं मौजूद हैं जो नौकरी पेशा लोगों में पायी जाती हैं जिसका कारण यह है कि शिक्षक लोग भी आज उसी शिक्षा की उपज हैं जो तेजस्‍वी शिक्षक पैदा करने के लिए नहीं बल्कि चाटुकार नौकरशाही खड़ी करने के लिए अंग्रेज साम्राज्‍यवादियों द्वारा स्‍थापित की गयी थी और जिसे हम अब भी बदल नहीं पाये हैं। अंग्रेजों द्वारा स्‍थापित अनौपचारिक शिक्षण प्रणाली ने हमारे समाज में एक ऐसा वर्ग तैयार कर दिया है जो अपनी कमजोरी को समझने और देखने को तैयार नहीं है। हम लोग जो कि औपचारिक शिक्षा की उपज हैं, बौद्धिक अथवा तार्किक दृष्टि से तो प्रबल हैं, पर जहॉं बुद्धि के साथ भावना को जोड़कर कुछ त्‍याग करने तथा उस त्‍याग के बल पर शक्ति संचय करके कुछ कर गुजरने का प्रश्‍न आता है, हम लोग ”रीते” से सिद्ध होते हैं। यदि हमें अपना कल्‍याण करना है और आत्‍मोद्धार की तरफ़ अग्रसर होना है तो हमें अपने पुराने शैक्षिक संस्‍करों की इस दुर्बलता को समझ कर अपने आपको पुनर्शिक्षित एवं पुन: संस्‍कारित करना होगा। हमें नये रूप से विद्यार्थी बनकर नये पाठ पढ़ने होंगे और नये अभ्‍यास करने होंगे।

मैं एक ऐसा व्‍यक्ति हूँ जो कई संस्‍थाओं की ठोकरें खा चुका है। या तो मैं बदमाश और अनुशासनहीन माना जाकर निकाला गया हूँ या मैंने संस्‍थाओं को अनुशासनहीन मान कर उन्‍हें स्‍वयं ही छोड़ा है। मैं किसी कटुतावश उन बातों को याद नहीं करता। पर मैं विश्‍लेषण करता हूँ और मैं मानता हूँ कि मेरा शिकार प्रबन्‍धकारिणी समितियों ने उतना नहीं किया जितना कि मेरे सहकर्मी शिक्षकों या कार्यकर्ताओं ने अपने स्‍वार्थों के लिए किया। इसलिए अपने अनुभव तथा अपने विश्‍लेषण का सार निकाल कर मैं यह मानता हूं कि शिक्षक जाति के उद्धार की कुंजी शिक्षण संस्‍थाओं के प्रबन्‍ध में शिक्षकों के प्रतिनिधित्‍व में नहीं है बल्कि शिक्षक जाति में अपने सहकर्मी के प्रति सदाशयता तथा मर्यादा का बीज बोने तथा उसे विकसित करने में है। जब तक शिक्षकों में पारस्‍परिक सदाशयता एवं पारस्‍परिक मर्यादा का संस्‍कर नहीं पड़ेगा तब तक शिक्षक जाति ग़ुलामों की तरह बरती जाती रहेगी तथा उसका शोषण होता रहेगा।

हमारे देश में भरत के चरित्र में जो आदर्श हैं, उसको ग्रहण करना उन सभी समुदायों के लिए अत्‍यावश्‍यक है जो अपनी उन्‍नति तथा अपनी प्रतिष्‍ठा चाहें। राम के प्रति अन्‍याय करके व्‍यवस्‍थापक राजा-रानी ने तो भरत को राजगद्दी दे दी थी, पर भरत ने इस राजगद्दी को स्‍वीकार नहीं किया। इस राजगद्दी को नहीं ग्रहण करने से भरत घाटे में रहे हैं या लाभ में रहे हैं, इसको तो भारत के साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक इतिहास ने भली प्रकार प्रदर्शित कर दिया है, पर भरत के चरित्र में पाये जाने वाले इस आदर्श को आज पूछता कौन है और कौन उससे शिक्षा लेता है! आज हर कार्यकर्ता अथवा शिक्षक इस धुन में है कि अपने साथी को धक्‍का देकर आजूबाजू में अथवा पीछे घकेल दे और स्‍वयं सबसे आगे की पंक्ति में जाकर बैठ जाये। ईसा मसीह ने हमें यह शिक्षा दी है कि ”जब किसी पंक्ति में बैठने का अवसर हो तो सबसे नीचे या सबसे पीछे की जगह पर बैठो ताकि इस बात का अवसर रहे कि कोई आपको हाथ पकड़ कर उससे आगे की जगह पर बैठने का अनुराध कर सके और ऐसा अवसर न रहे कि कोई आपको उठा कर नीचे या पीछे की जगह बैठने को मजबूर करे।” योग्‍यता होते हुए भी, पात्रता होते हुए भी, अधिकार होते हुए भी, आगे की पंक्ति में बैठने की लालसा इस हद तक नहीं बढ़ जानी चाहिए कि उस लालसा में हम अपने साथी की हानि कर दें। अपने साथी और सहयोगी के प्रति हमारी सदाशयता जब तक दृढ़ न होगी और जब तक हम अपने साथी को धक्‍का देकर खुद आसन ग्रहण करने का पाप अपने मन में बसाते रहेंगे तब तक संस्‍था की कार्यकारिणी की ओर से संस्‍था के कार्यकर्ताओं पर अन्‍याय होता रहेगा और कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्‍व संस्‍था के प्रबन्‍ध में होने पर भी उस अन्‍याय से बचा नहीं जा सकता। आत्‍मरक्षा का उपाय यही है कि शिक्षक अपने भीतर तीन प्रकार की वफादारी विकसित करे- (1) सत्‍य के प्रति (अर्थात् समाज के व्‍यापक हितों के प्रति); (2) संस्‍था के प्रति; (3) साथियों के प्रति। नौकरी का यह अर्थ नहीं कि हम वेतनदाता के प्रति ही अपनी वफ़ादारी सीमित करके सत्‍य के प्रति और साथियों के प्रति अपनी वफ़ादारी समाप्‍त कर दें!

भरत और रावण में मूल अंतर क्‍या है? भरत और रावण ये दो प्रकार के चरित्र हैं जो परस्‍पर आत्‍यंतिक (extreme) रूप से विरोधी हैं। भरत वह है जो व्‍यवस्‍थापक शक्ति द्वारा प्रदान की गयी उस भेंट को स्‍वेच्‍छा से तथा दृढ़तापूर्वक अस्‍वीकार कर देता है जो उसे दूसरे का हक छीन कर दी गयी है। भरत के आगे व्‍यवस्‍थापक शक्ति असहाय होकर हतप्रभ हो जाती है। भरत के आगे व्‍यवस्‍थापकशक्ति पराजित हो जाती है। उधर रावण का चरित्र भरत के चरित्र से उलटा है। रावण छल से तथाबल से उस अधिकार को छीनना चाहता है जो कि दूसरे को न्‍यायत: तथा औचित्‍यपूर्वक प्राप्‍त है। बस यही रावण तथा भरत का अंतर है, और हमें सोचना है कि हमारे भीतर रावण बैठा है या भरत, और हमें यह निर्णय भी करना है कि अंत में भरत घाटे में रहता है या रावण और बुद्धिमानी भरत बनने में है या रावण बनने में है।

आज हमारे देश में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय बड़ी संख्‍या में खुले हैं और यह पाबन्‍दी लगा दी है कि कोई भी अध्‍यापक केवल ”शिक्षित” होने से ही अध्‍यापक नहीं बन सकेगा। उसे अध्‍यापक बनने के लिए शिक्षित होने के साथ-साथ प्रशिक्षित भी होना होगा। पर ये शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय भी हमारे भावी शिक्षकों को भरत एवं रावण का भेद नहीं बताते। प्रशिक्षण में भी शिक्षकों को अपने ”साथी के प्रति वफ़ादारी” का कोई पाठ नहीं पढ़ाया जाता। प्रशिक्षण भी एक प्रतिस्‍पर्द्धा ही का मैदान है। उसमें भी बाजियॉं हारी जाती हैं और बाजियॉं जीती जाती हैं। वहॉं भी इंसान बन कर सहयोगी जीवन बिताना वर्जित है। हमारी शिक्षा का तथा हमारे प्रशिक्षण का समूचा ढांचा प्रतियोगिता एवं प्रतिस्‍पर्धा पर ही टिका हुआ है। ”प्रतिस्‍पर्धा के दीर्घकालीन अभ्‍यास” का नाम ही आज शिक्षा है। विद्यालय एवं महाविद्यालय विशालकाय प्रतिस्‍पर्धा-यंत्र हैं जिनमें से शिक्षित लोगों का उत्‍पादन होता है। जो भी लोग इस यंत्र से निकलते हैं उन्‍हें अपनी पात्रता बढ़ाने की और अपने साथी की प्रगति पर खुश होने की आदत नहीं होती, उनमें केवल यही भावना रहती है कि वे दूसरे को धक्‍का देकर अपने लिए आगे का स्‍थान सुरक्षित करें। इस प्रकार हमारी शिक्षा ने तथा हमारे प्रशिक्षण ने हमारे भीतर रावणीय संस्‍कार कूट-कूट कर भर दिए हैं और हमें अपने उद्धार के लिए स्‍वयं अपने लिए एक ऐसी नयी शिक्षा की व्‍यवस्‍था करनी है जिससे हमारे रावणीय संस्‍कार समाप्‍त हों और जिससे हमारे भीतर भरतवादी संस्‍कार जड़ जमा सकें।

इस प्रकार की नयी शिक्षा और इस प्रकार के नये संस्‍कार प्राप्‍त करने के लिए मेरा एक नम्र सुझाव है जिसे मैं तमाम शिक्षकों के सम्‍मुख और ख़ास करके स्‍वैच्छिक शिक्षण संस्‍थाओं के सभी कार्यकर्ताओं के सम्‍मुख रखना चाहता हूँ। मेरा निवेदन है कि स्‍वैच्छिक शिक्षणसंस्‍था के कार्यकर्तागण अपने आपको संस्‍था के 100 प्रतिशत नौकर नहीं माने और किसी न किसी अंश में अपने आपको संस्‍था के पोषक, समर्थक और संरक्षक भी मानें और इसके साथ ही साथ वे अपने साथी कार्यकर्ताओं के प्रति भी उतनी ही निष्‍ठा की साधना करें जितनी निष्‍ठा वे अपनी संस्‍था के प्रति रखते हैं। जो लोग संस्‍था की कार्यकारिणी के सदस्‍य हैं ओर जो लोग संस्‍था की आम सभा के सदस्‍य हैं, यह केवल उन्‍हीं का एकाधिकार नहीं है कि वे संस्‍था के लिए चंदा एकत्र करें तथा स्‍वयं अपनी जेब से भी कुछ चंदा दें तथा संस्‍था के लिए समय तथा शक्ति दें और संस्‍था की तरक्‍की के लिए चिंता एवं प्रयत्‍न करें। संस्‍था में कार्य करने वाले शिक्षकों अथवा कार्यकर्ताओं को इस बात की कोई मनाही नहीं है कि वे भी संस्‍था को चंदा दें, वे भी संस्‍था के लिए चंदा करें, वे भी संस्‍था के भविष्‍य की चिन्‍ता करें। संस्‍था के शिक्षकों को अपनी संस्‍था के लिए ऐसा ऊँचा या उदात्त रुख अपनाने की पूरी स्‍वतन्‍त्रता तथा पूरा अधिकार है।

जब शिक्षक और अन्‍य कार्यकर्ता अपनी संस्‍था के लिए उपर्युक्‍त रूप से एक उदात्त भावना तथा दृष्टिकोण अपनावेंगे तो उनका सम्‍मान (status) या उनकी मान्‍यता भी अपने आप बढ़ जायगी। शिक्षकों तथा कार्यकर्ताओं को इस तरह से अपनी संस्‍था के प्रति उत्तरदायित्‍व की भावना अपना कर अपना सम्‍मान या अपनी प्रतिष्‍ठा बढ़ा लेने का पूरा पूरा अधिकार है और मेरी राय है कि प्रत्‍येक स्‍वैच्छिक शिक्षण संस्‍था के कार्यकर्ताओं को अपने इस अधिकार का प्रयोग अवश्‍य करना चाहिए। यह घाटे का सौदा नहीं है, लाभ का सौदा है; इसमें परोपकार ही नहीं है, स्‍वार्थरक्षा भी है; इसमें त्‍याग ही नहीं है, इसमें लाभ भी है।

इसमें खास बात यह है कि संस्‍था के प्रति तथा अपने साथी कायर्कर्ताओं के प्रति तथा अपने साथी कार्यकर्ताओं के प्रति हमारे सम्‍बन्‍धों की बुनियाद ही बदल जाती है, उन सम्‍बन्‍धों में एक मौलिक परिवर्तन आ जाता है। संस्‍था की वैतनिक सेवा करते हुए भी संस्‍था को अपना संरक्षण प्रदान करने का संस्‍कार जब हममें पड़ेगा तब हमें संस्‍था से लेना ही लेना नहीं सूझेगा, तब हमें यह भी सूझेगा कि संस्‍था-रूपी जिस वृक्ष की छाया में हम बैठे हैं, उस वृक्ष की रक्षा करना तथा उसकी जड़ में खाद और पानी देना हमारे लिए एक ऐसा कर्तव्‍य है जिस पर स्‍वार्थ और परमार्थ दोनों का एकीकरण और समन्‍वय होता है।

मेरा प्रस्‍ताव यह है कि स्‍वैच्छिक शिक्षण संस्‍थाओं के शिक्षक तथा कार्यकर्तागण अपने द्वारा उपर्जित वेतन (जो कि उनको अपनी संस्‍था की सेवाओं से प्राप्‍त होता है) का एक प्रतिशत अपने लिए अग्रहणीय मानकर उस एक प्रतिशत का परित्‍याग करें तथा उससे एक कोष स्‍थापित करें जिसका नाम ”त्‍यक्ति कोष” हो। इस त्‍यक्तिकोष में एकत्र होने वाले धन का आधा भाग तो संस्‍था को ”कार्यकर्ताओं की भेंट” के रूप में समर्पित किया जाना चाहिए और उसका आधा भाग ”कार्यकर्ता संकट निवारण कोष” की तरह सुरक्षित रखा जाना चाहिये।

मेरे उपर्युक्‍त प्रस्‍ताव का जो मूल्‍य है और उसके भीतर जो मर्म है उसे मैं शब्‍दों या तर्कों से भली प्रकार नहीं समझा सकता हूँ। यह तो एक ऐसा प्रस्‍ताव है जिसका चमत्‍कार सही भावना से उसका पालन करने से ही हमारे घट में बैठ सकता है। इस प्रस्‍ताव को तर्क के साथ साथ श्रद्धा या भावना की मदद से ही समझा जा सकता है और उससे लाभ उठाया जा सकता है। फिर भी मैं यथाशक्ति इसके रहस्‍य को शब्‍दों में स्‍पष्‍ट करने का प्रयत्‍न करूंगा।

हमारी संस्‍कृति में ईशोपनिषद् का बड़ा महत्‍व है और उसमें जो यह कहा गया है कि ”यह सब कुछ जो इस जगत् में हमें दृष्टिगोचर होता है, ईश्‍वर से ओतप्रोत है (वह मृत या जड़ या तिरस्‍करणीय नहीं है); अत: हमारा जो भी भोग हो वह त्‍यागपूर्वक किया जाना चाहिए।” हम भोगें अवश्‍य परन्‍तु याद रखें कि हम पर ही दुनिया समाप्‍त नहीं होती– हमारे साथ साथ और भी हैं जिनको भोग की वैसी ही भूख तथा आवश्‍यकता है जैसी हमारी है और इसलिए जो कुछ प्राप्‍त हो उसमें से पहले तो कुछ त्‍याग करो और उस त्‍याग के उपरान्‍त जो शेष रहे उसी को भोगो। इस तरह ”कुछ” का परित्‍याग करने के उपरान्‍त जो बचता है, वहीं हमारे लिए पवित्र है और उपभाग्‍य है।

ईशोपनिषद् द्वारा उद्धाटित किया गया यह परम रहस्‍य व्‍यक्ति तथा समाज दोनों ही के लिए इतना कल्‍याणकारी है जिसकी समानता किसी भी दूसरे रहस्‍य से या मंत्र से नहीं हो सकती।

हम यह बात तो आसानी से समझ सकते हैं कि यदि ईशोपनिषद् की इस सलाह पर हमारा समाज अमल करे और प्रत्‍येक व्‍यक्ति सामने आये हुए और अधिकारपूर्वक प्राप्‍त हुए भोग्‍य पदार्थ या भोग्‍य साधन संपदा में से ”कुछ” का स्‍वेच्‍छा से परित्‍याग कर दे तो उससे समाज के दुर्बल वर्ग का कल्‍याण आसानी से हो सकता है तथा समाज की अनेकानेक समस्‍याऍं सरलता से एवं बिना सरकारी दंड के हस्‍तक्षेप के हल हो सकती हैं। परन्‍तु हमारे लिए यह समझना ज़रा मुश्किल हो सकता है कि जो व्‍यक्ति अपने सामने आए हुए और अपने अधिकारपूर्वक (या हलाल की कमाई से) प्राप्‍त भोग्‍य पदार्थ में से ”कुछ” स्‍वेच्‍छा से परित्‍याग करता है, उस व्‍यक्ति को उस त्‍याग से व्‍यक्तिगत रूप में क्‍या लाभ हो सकता है! पर मैं तो मानता हूँ कि इस तरह से त्‍याग करने वालो को ऐसे त्‍याग से जो व्‍यक्तिगत लाभ प्राप्‍त होता है वह उस लाभ की तुलना में कहीं बड़ा तथा श्रेष्‍ठ है जो कि उस व्‍यक्ति के त्‍याग द्वारा समाज को या उसके दुर्बल वर्ग को प्राप्‍त होता है।

यों तो भोग का उपभोग एक प्रिय तथा सुस्‍वादु और मज़ेदार अनुभव हुआ करता है, पर प्रत्‍येक भोग में एक दुर्गुण यह छिपा रहता है कि भोग तृप्ति के स्‍थान पर तृष्‍णा को जन्‍म देता है और इसलिए भोग मनुष्‍य के जीवन में तृष्‍णा रूपी रोग में बदल जाता है। इससे व्‍यक्ति शांत तथा संतुष्‍ट होने के बजाय अशांत, असंतुष्‍ट, दयनीय और संपदा के रहते हुए दरिद्र हो जाता है। अत: व्‍यक्ति की समस्‍या यह है कि भोग को किस प्रकार भोगा जाय ताकि भोग तृष्‍णा के बजाय तृप्ति प्रदान कर सके। इस समस्‍या का समाधान यह है कि सम्‍मुख उपस्थित हुए अपने कर्म के पुरस्‍कार रूपी फल का उपभोग हम उसमें से कुछ का परित्‍याग करने के बाद में करें और हमने अपने फल में से जिस अंश का परित्‍याग किया है उसके प्रति ममत्‍व अथवा आसक्ति का भी त्‍याग करें। इस प्रकार ईशोपनिषद् ने हमें जो परम रहस्‍यपूर्ण परामर्श दिया है उसमें व्‍यक्ति तथा समाज, दोनों के समन्वित कल्‍याण का सन्निवेश होता है।

हमारे यहां कहीं कहीं कुछ लोगों का यह नियम होता है कि जो भोजन उनके खाने के लिए थाली में परोसा जाता है, उसमें से वे कुछ अंश अग्नि में होमते हैं अथवा कुछ भाग गाय या कुत्ते के लिए पृथक् करते हैं, और तभी सामने आए हुए भोजन को ग्रहण करते हैं। इस विधि से जो भोजन किया जाता है वह निश्‍चय ही अधिक तृप्तिदायक होता होगा क्‍योंकि उसमें यह भावना निहित है कि इस जगत् में हम ही भूखे नहीं है, ओर भी भूखे हैं, ओर इसलिए हमें अमर्यादित भोग से बचना है ताकि भोग हमारी ही तरह सभी को प्राप्‍त हो।

इसके अलावा इस में तीसरा बोध भी काम करता है कि जो कुछ भोग हमारे सामने हमारे परिश्रम या हमारी कमाई से हमें प्राप्‍त हुआ है, वह हमारे अकेले की साधना से प्राप्‍त नहीं हो सकता था। यद्यपि अपना भोग्‍यफल हमने अपने प्रयत्‍न से तथा अपनी कमाई से प्राप्‍त किया है, फिर भी हमने जो कमाया है उसे हम अपने आप अकेले नहीं कमा सकते थे। एक प्राकृतिक या सामाजिक व्‍यवस्‍था के भीतर पर्याप्‍त सहयोग प्राप्‍त होने से ही हम इस योग्‍य रहे हैं कि हम अपने लिए कुछ कमा सकें। अत: यदि हम चाहते हैं कि वह व्‍यवस्‍था स्‍व्‍स्‍थ रूप से टिकी रहे जिसके अन्‍तर्गत हमने अपना भोग्‍य फल कमाया है तो हमारी कमाई का कुछ अंश उस व्‍यवस्‍था को स्‍वस्‍थ एवं पुष्‍ट करने में अवश्‍य जाना चाहिए जिसने हमारी कमाई को संभव बनाया है। यह न केवल प्रत्‍युपकार के कर्तव्‍य के कारण आवश्‍यक है बल्कि यह इसलिए भी अति आवश्‍यक है कि वे व्‍यवस्‍थाऍं सुरक्षित रहें जिनके अन्‍तर्गत हमारी कमाई, हमारा रोज़गार तथा हमारा कामकाज संभव है।

इस प्रकार अनेक ठोस कारणों से हमारे लिए यह सुरक्षा, लाभ, सम्‍मान तथा उन्‍नति का साध्‍न होगा कि जो कुछ भी हम लोग एक स्‍वैच्छिक शिक्षण संस्‍था में अपने वेतन के रूप में प्राप्‍त करते हैं उसका कुछ अंश हम स्‍वेच्‍छा तथा प्रसन्‍नता से त्‍यागें और इस प्रकार के त्‍याग से जो भी राशि एकत्र हो, उसका आधा भाग उस संस्‍था को समर्पित करें जिसके हम कार्यकर्ता हैं और उसका शेष आधा भाग अपने किसी साथी कार्यकर्ता पर अचानक आ पड़ने वाले किसी भी संकट के निवारण में सहायता के रूप में खर्च करें।

मैं इसे शिक्षकों की तेजस्‍वी बनाने का ”त्‍यक्तिमार्ग” मानता हूँ। यह त्‍यक्तिमार्ग अकेले एक या चंद शिक्षकों द्वारा अपनाने से लाभ न होगा। यह त्‍यक्तिमार्ग किसी भी संस्‍था के सारे के सारे कार्यकर्ताओं को एक साथ तथा सामूहिक रूप से, स्‍वेच्‍छा तथा खुशी से, अपने शिक्षकीय व्‍यवसाय का एक मूल धर्म मानकर अपनाना चाहिए। इस तरह के त्‍यक्तिमार्ग में शिक्षकों में तथा प्रशासनिक कार्यकर्ताओं (क्‍लर्क, एकाउण्‍टेंट, ऑफिस इंचार्ज और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि) में फूट या भेद नहीं होना चाहिए। प्राय: संस्‍थाओं में शिक्षण तथा प्रशासन वाले कार्यकर्ताओं के बीच एक भेद तथा फूट चला करती है। यह भेद तथा फूट अनुचित है।

अधिकार प्राप्ति का श्रीगणेश यदि कर्तव्‍यपूर्ति से किया जाय, कामना का अनुष्‍ठान यदि पात्रता से किया जाय, तो सारा मार्ग सीधा तथा आसान हो जाता है। शिक्षकों का वर्चस्‍व, शिक्षकों का सम्‍मान, शिक्षकों की तेजस्विता अवश्‍य बढ़नी चाहिए। यह केवल शिक्षकों के लाभ, शिक्षकों के हित एवं शिक्षकों के स्‍वार्थ की बात नहीं है, बल्कि यह उस स्‍वैच्छिक शिक्षण संस्‍था के हित में है और यह पूरे समाज के हित में है कि शिक्षकों का स्‍थान समाज में ऊँचा उठाया जाय तथा शिक्षकों द्वारा राष्‍ट्र की शिक्षा के स्‍वरूप निर्धारण में अधिक से अधिक हिस्‍सा बंटाया जाय। जब तक शिक्षक तेजस्‍वी नहीं होंगे तब तक शिक्षा में तेजस्विता नहीं आयेगी और जब तक शिक्षा में तेजस्विता नहीं आयेगी तब तक समाज तेजस्‍वी न होगा। यह त्‍यक्तिमार्ग जो इस लेख में शिक्षकों के लिए सुझाया गया है शिक्षकों को ”नौकरी” की उस अध:पतनकारी वृत्ति से उबारने के लिए सुझाई गयी है जिससे कि वे बुरी तरह ग्रस्‍त हैं। जब तक हम अपने आपको शुद्ध नौकर मानते रहेंगे तब तक हम ”शिक्षक” नहीं हो सकते हैं। हम अपने धंधे के नौकर ही क्‍यों हों? क्‍यों नहीं हम अपने धंधे के स्‍वामित्‍व में भी भाग बंटावें? क्‍या यह संस्‍था के संस्‍थापकों, अध्‍यक्षों, मंत्रियों या कार्यकारिणी के सदस्‍यों का ही एकाधिकार है कि वे संस्‍था के संचालक हों और हम शिक्षक लोग शुद्ध रूप से उनके नौकर हों? क्‍यों नहीं किसी न किसी रूप में एवं किसी न किसी अंश में हम संस्‍था के संचालन में अपना अंशदान अर्पित करें? जब हम अपना अंशदान देना शुरू कर देंगे उसके बाद वातावरण तथा संबंध अपने आप बदलेंगे, तब किसी अधिकार-संघर्ष की आवश्‍कता न होगी।

मैंने शिक्षकों के बीच इस त्‍यक्तिमार्ग का उल्‍लेख दो-चार अवसरों पर करके देखा है। प्राय: मेरा अनुभव यह कहता है कि शिक्षक लोग इस त्‍यक्तिमार्ग की उपयोगिता तथा उसकी गौरवपूर्ण भावी संभावनाओं को तुरन्‍त समझ जाते हैं और इसके लिए आवश्‍यक ”त्‍यक्तिदान” तत्‍काल प्रारंभ कर देते हैं। परन्‍तु शिक्षकों के भीतर ही जो लोग उच्‍च पदों पर होते हैं और जिनका वेतन भी अपेक्षतया अधिक होता है, वे लोग प्राय: इस मार्ग के प्रति ऐसा शिथिल रुख अपनाते हैं कि उनकी शिथिलता के कारण अपेक्षतया जो छोटे शिक्षक हैं उनका उत्‍साह ठंडा पड़ जाता है और उनका संकल्‍प टूट कर बिखर जाता है। तो यहॉं भी यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि संस्‍था की कार्यकारिणी समिति शिक्षकों की तेजस्विता के विरुद्ध उतनी नहीं है जितने कि स्‍वयं वे शिक्षक ही इसके प्रति उदासीन हैं जो ऊँचे पदों पर हैं और अपेक्षतया ऊँचा वेतन पाते हैं। इसका कारण क्‍या है? कारण यह है कि कार्यकारिणी समितियां तो सभी कार्यकर्ताओं को समत्‍व बुद्धि से देख सकती हैं, लेकिन जो उच्‍चपदासीन शिक्षक हैं, जिनके हाथ में शिक्षकों की हुकूमत है, वे अधीनस्‍थ शिक्षकों के साथ तादात्‍म्‍य स्‍थापित करना नहीं चाहते और यह त्‍यक्तिमार्ग हुकूमत करने वाले तथा हुकूमत में चलने वाले, दोनों ही प्रकार के शिक्षकों को एक समान स्‍तर पर ले आता है। पर इस फिज़ां से सामान्‍य शिक्षकों को घबराना नहीं चाहिए और उच्‍चपदासीन एवं हुकूमत के अंगभूत जो शिक्षक हैं उनका पूरा सहयोग यदि नहीं मिले तो भी अपनी संस्‍था में इस त्‍यक्तिमार्ग का श्रीगणेश अवश्‍य कर देना चाहिये।

भक्ति और शक्ति के बीच ‘त्‍यक्ति’

हमारी संस्‍कृति में भक्ति भक्‍त भी बहुत रहे हैं। पर जो भक्ति भक्‍त रहे वे समाज से उदासीन हो गये और जो शक्ति भक्‍त रहे वे समाज पर हावी हो गये। इस प्रकार समाज में विघटन पैदा हुआ और सामान्‍य जनता पिसती रही। इस दुरावस्‍था के संशोधन के लिए भक्ति एवं शक्ति के बीच ”त्‍यक्ति” की नयी धारा प्रवाहित की जानी चाहिये। त्‍यक्ति ही वह युक्ति है जो भक्ति को दुर्बल होने से और शक्ति को निरंकुश होने से बचाती हुई भक्ति और शक्ति के बीच समन्‍वय स्‍थापित कर सकती है। शिक्षक समाज की तेजस्विता आज की घड़ी में समूचे देश की एक अनिवार्य आवश्‍यकता है, पर यह तेजस्विता शिक्षकों को न तो ख़ैरात के रूप में बांटी जा सकती है और न भारतीय संविधान में कोई नया संशोधन करके पैदा की जा सकती है। तेजस्विता तो मनुष्‍य के अंत:स्‍थल से ही प्रकट होगी और उसे अंत:स्‍तल से पैदा करने के लिए शिक्षकों को प्रसन्‍नता एवं पूर्ण स्‍वेच्‍छा से त्‍यक्तिमार्ग का सहारा लेना होगा।

त्‍यक्तिमार्ग के संकल्‍प यों तो कुछ और स्‍थानों के शिक्षकों में भी हुए हैं, लेकिन इसका एक व्‍यवस्थित संकल्‍प पिछले दिनों बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण सिमति के कार्यकर्ताओं ने सामूहिक रूप से लिया है। संस्‍थाओं की अनेक ठोकरें खाकर मेरे प्राणों में एक ऐसी अभिलाषा है कि शिक्षक जाति तेजस्‍वी बने, अपना आपा स्‍वयं संभाले; समाज के प्रति, निज के प्रति तथा साथी शिक्षक बंधुओं के प्रति अपने कर्तव्‍य को समझे तथा उसका पालन करे। इस वास्‍ते, मेरी यह हार्दिक अपील है कि कम से कम स्‍वैच्छिक शिक्षण संस्‍थाओं के सभी शिक्षक त्‍यक्तिमार्ग के इस प्रस्‍ताव को स्‍वीकार करें और इस विचार का प्रचार, प्रसार तथा विकास करें।

इस लेख को यों तो यहीं समाप्‍त हो जाना चाहिए, पर मैं यहॉं कुछ शंकाओं का समाधान भी करना चाहूँगा जो कि बातचीत के दौरान इस त्‍यक्ति प्रस्‍ताव के विरुद्ध उठायी गयी है।

 

पहली शंका यह है कि प्रस्‍ताव तो मेरा बहुत उचित है, पर इसे व्‍यापक रूप से मान लिया जाय ऐसा वातावरण आज नहीं है, इसलिए यह प्रस्‍ताव न तो चल सकता है और न कारगर हो सकता है। इस शंका के प्रति मेरा उत्‍तर यह है कि इस तरह की शंका उठाना केवल मनुष्‍य जाति की कमजोरी तथा बहानेबाजी है। मनुष्‍य को उस कर्तव्‍य का स्‍वयं पालन कर लेना चाहिए जो उसकी समझ में कल्‍याणकारी लग जाता है। समझ में आये हुए शुभ कर्म को स्‍वयं करने में तल्‍लीन हो जाने के बजाय यह चिंता करने बैठ जाना कि ”यह शुभ कार्य मैं तो कर लूंगा पर दूसरे तमाम लोग इसे करेंगे या नहीं” खुदा का काम अपने हाथों में लेना है। ईश्‍वर ने हर व्‍यक्ति को बुद्धि तथा हाथ इसलिए दिए कि प्रत्‍येक व्‍यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार कार्य करके भगवान को अपने अपने लिए जवाब दे सके। सच बोलना और चोरी न करना बहुत अच्‍छा है, पर मैं इसका पालन इसलिए नहीं करूंगा कि शत प्रतिशत लोग इसका पालन नहीं करते, ऐसा हम लोग नहीं कहते। इसी प्रकार ”त्‍यक्तिमार्ग” को अपनाने में सारी दुनियां की स्‍वीकृति की आवश्‍यकता नहीं है। केंचुए अपनी सभा बुलाकर सर्वसम्‍मत प्रस्‍ताव पास होने की प्रतीक्षा नहीं करते कि खेतों की मिट्टी को बारीक और मुलायम बनाने का काम करना चाहिए या नहीं। वे तो बस अपना-अपना काम करते हैं, इस बात पर ध्‍यान नहीं देते कि दूसरा केंचुआ भी अपना काम करता है या नहीं। कर्मयोग का यही रहस्‍य है और इसे हम केंचुए से सीख सकते हैं।

मेरे प्रस्‍ताव के बारे में एक प्रश्‍न यह उठा है कि यह त्‍यक्तिमार्ग जो पैसे का रूप धारण करता है, इसके बजाय यदि शिक्षक लोग अपने कार्य में अधिक अथवा अतिरिक्‍त समय, शक्ति तथा ध्‍यान देकर संस्‍था की सेवा करें तो क्‍या हर्ज है? क्‍या त्‍यक्ति को पैसे की शक़ल देने के बजाय ”अतिरिक्‍त सेवा” के रूप में नहीं चरितार्थ किया जा सकता है? यह प्रश्‍न तो बहुत अच्‍छा है, परन्‍तु इसका उत्‍तर यह है कि पूर्वाधिक निष्‍ठा द्वारा कुछ अतिरिक्‍त सेवा करना बहुत अच्‍छी बात हो सकती है, पर वह हाथ में आये हुए भोग्‍य पुरस्‍कार का फल या त्‍याग नहीं है। त्‍यक्ति में हम एक खास तरह का अभ्‍यास करके खास तरह का संस्‍कार प्राप्‍त करते हैं। त्‍यक्ति हमें उस वेतन में से करनी है जो कि हमारी जेब में पहुँच चुका है। जो वेतन हमारे भोग्‍य अधिकार में या हमारी भोग्‍य सीमा में आ चुका, उस वेतन को पूर्णरूपेण भोग में ही झोंक देने के लोभ से, उस वेतन को पूर्ण रूप से भोग में झोंक देने की आदत से, हमें अपने आपको बचाना है। यह एक विशिष्‍ट प्रकार की नयी तालीम है जो अपने कर्तव्‍य कर्म में अतिरिक्‍त समय और श्रम देने से बहुत भिन्‍न है। उसका मूल्‍य अलग है और जो त्‍यक्तिदान का मूल्‍य है वह अलग है।

मानव जीवन कुछ इस तरह बनाया गया है कि प्राप्ति की संभावना तभी खड़ी होती है जब हम अपनी तरफ़ से देने के लिए तैयार हों तथा देना शुरू कर दें। फुटबॉल, बॉलीबाल, टेनिस आदि खेल गेंद को अपने पास पकड़ कर बैठ जाने से खेले नहीं जा सकते। गेंद को दूसरे की तरफ फेंकने से ही वह प्रक्रिया चालू होती है जिससे गेंद हमारे खेलने के लिए हमें प्राप्‍त होती है। इस प्रकार त्‍यक्ति से ही वह प्रक्रिया शुरू होती है जिसके अन्‍तर्गत प्राप्ति संभव है। किसी की त्‍यक्ति ही तो किसी के लिए प्राप्ति बनती है। जिस समाज में त्‍यक्ति का क्षय हो जाता है उस समाज में प्राप्ति का भी क्षय होना अवश्‍यंभावी है। और जिस समाज में स्‍वैच्छिक त्‍यक्ति का क्षय हो जाता है, उस समाज में दांडिक (डंडे के जोर से वसूल की जाने वाली) त्‍यक्ति का अविर्भाव सहज रूप से हो जाता है क्‍योंकि जीवन की व्‍यवस्‍था के लिये त्‍यक्ति अनिवार्य है चो वह त्‍यक्ति स्‍वैच्छिक हो चाहे उसे दांडिक तौर पर लागू करना पड़े। शिक्षा का मूल उद्देश्‍य यदि कुछ है तो यही कि समाज में स्‍वैच्छिक त्‍यक्ति को इस हद तक जीवित एवं पुष्‍ट रखा जाय कि दांडिक त्‍यक्ति अपनी मर्यादा तोड़ करसमाज पर हावी न हो।

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